|| श्रद्धा से प्रभु को पुकारें ||
भगवान गीता [ ४ / ३९ ] में कहते हैं " जितेन्द्रिय , साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के - तत्काल ही भगवतप्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है |" अर्थात श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है |श्रद्धा के अनुसार ही तत्परता होती है | जिस किसी काम में तत्परता नहीं होती , उसमें विश्वास की कमी है | प्रथम तो यह विश्वास होना ही चाहिए की ईश्वर है | फिर यह की वह सर्वत्र है , सर्वान्तर्यामी हैं | फिर उन पर दृढ विश्वास करना चाहिए की इनसे बढ़कर और कुछ नहीं है | बहुत भारी निर्भयता , शान्ति , प्रसन्नता प्रत्यक्ष आ जाती है | यह हृदय से समझलें की भगवान के समान ही जब कोई वस्तु नहीं है , फिर इनसे बढकर कोई कैसे हो सकता है ? यह समझने के बाद भगवान का चिंतन छूट ही नहीं सकता [ गीता १५ / १९ ] | तथा जो भगवान का निरंतर चिंतन करता है , भगवान सब प्रकार से उसकी रक्षा करते हैं [ गीता ९ / २२ ] | लौकिक योगक्षेम की तो बात ही क्या , प्रभु पारलौकिक योगक्षेम वहन करते हैं | हर समय पास रहते हैं | माता बालक की जैसे रक्षा करती है , उससे बढकर रक्षा करते हैं , और अपनी प्राप्ति करा देते हैं |
प्रभु की जिस समय विस्मृति हो उस समय एकांत में पूरी श्रद्धा और विनय भाव से उनसे प्रार्थना करें - हे नाथ ! आपके रहते मेरी यह दशा , मैं निश्चय ही पापी हूँ , मेरा अंत:करण मलिन है , मैं अपराधी हूँ , इसीलिए तो आपमें श्रद्धा और प्रेम की कमी है ? आप शरणागत की रक्षा करते हैं | आप तो पतितपावन , दया के सागर हैं | मैं विचार - विवेक के द्वारा आपकी शरण होना चाहता हूँ , किन्तु मेरा मन सुनता नहीं है | इसमें जो श्रद्धा - प्रेम की कमी है , वह तो आपकी कृपा से ही पूर्ण होगी | हे नाथ ! बस यही प्रार्थना है की आपकी दया सर्वत्र मुझको प्रतीत होती रहे | आपकी स्मृति हर समय मुझे होती रहे | हे नाथ ! मैं बल चाहता हूँ , मदद चाहता हूँ जिससे निरंतर चिंतन बना रहे | इस प्रकार एकांत में दिल खोलकर प्रभु से प्रार्थना करें | वास्तव में सच्ची आवाज हो तो करूणासागर तक अवश्य पहुंचेगी | कहते हैं की चींटी के पाँव में बंधे घुँघरू की आवाज भी प्रभु सुन लेते हैं | सबसे श्रेष्ठ मनुष्य शरीर पाकर , सर्वश्रेष्ठ आर्यावर्त देश , सब प्रभु की कृपा से प्राप्त है , फिर भी अगर प्रभु की प्राप्ति इस जन्म में नहीं हुई तो हमारा जन्म व्यर्थ समझा जाएगा | गीता का ज्ञान हमें यहाँ सर्वत्र उपलब्ध है , भगवन्नाम का माहात्म्य महात्मा डंके की चोट बताते हैं |
जब - जब राग , द्वेष , ममता , अहंकार , मान , बडाई , प्रतिष्ठा आकार दबाएँ तो हे नाथ ! हे नाथ ! पुकारें | हे नाथ ! मुझे माया के डाकुओं ने घेर लिया है , मैं अनाथ की तरह मारा जा रहा हूँ | आपके बिना बचानेवाला कोई नहीं है | इस प्रकार हृदय से [ आर्त्त भाव से ] की गई सच्ची प्रार्थना प्रभु अवश्य सुनते हैं | इसलिए अपने द्वारा अपना संसार - समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डालें , क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है [ गीता ६ / ५ ] | विचार करने पर कोई भी समझ सकता है की त्याग से शान्ति मिलती है , केवल त्याग से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है | जिसमें जितना त्याग है उतना ही वह परमात्मा के नजदीक है | कबीरदासजी कहते हैं " कंचन तजना सहज है , सहज त्रिया का नेह | मान , बडाई , ईर्ष्या , दुर्लभ तजना एह ||" महात्मा लोग यह कहते हैं , मान को विष और अपमान को अमृत समझो |
मनुष्य नाम के लिए प्राणों का त्याग कर देता है , कीर्ति के लिए मर मिटता है | कीर्ति से बढकर ' ईर्ष्या ' है | कंचन , कामिनी , मान , बडाई आदि की जड राग है | ईर्ष्या की जड द्वेष है | राग - द्वेष की जड अहंकार है | अहंकार की जड अविवेक , अज्ञान , अविद्या है | इनका नाश प्रभु की शरण से होता है [ ७ / १४ ] | श्रद्धा से ही प्रभु की प्राप्ति संभव है [ १२ / २ ] | अतिशय श्रद्धायुक्त योगी , जो अंतरात्मा से प्रभु को निरंतर भजता है , वह परम श्रेष्ठ योगी माना गया है [ ६ / ४७ ] |
|| इति ||
भगवान गीता [ ४ / ३९ ] में कहते हैं " जितेन्द्रिय , साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के - तत्काल ही भगवतप्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है |" अर्थात श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है |श्रद्धा के अनुसार ही तत्परता होती है | जिस किसी काम में तत्परता नहीं होती , उसमें विश्वास की कमी है | प्रथम तो यह विश्वास होना ही चाहिए की ईश्वर है | फिर यह की वह सर्वत्र है , सर्वान्तर्यामी हैं | फिर उन पर दृढ विश्वास करना चाहिए की इनसे बढ़कर और कुछ नहीं है | बहुत भारी निर्भयता , शान्ति , प्रसन्नता प्रत्यक्ष आ जाती है | यह हृदय से समझलें की भगवान के समान ही जब कोई वस्तु नहीं है , फिर इनसे बढकर कोई कैसे हो सकता है ? यह समझने के बाद भगवान का चिंतन छूट ही नहीं सकता [ गीता १५ / १९ ] | तथा जो भगवान का निरंतर चिंतन करता है , भगवान सब प्रकार से उसकी रक्षा करते हैं [ गीता ९ / २२ ] | लौकिक योगक्षेम की तो बात ही क्या , प्रभु पारलौकिक योगक्षेम वहन करते हैं | हर समय पास रहते हैं | माता बालक की जैसे रक्षा करती है , उससे बढकर रक्षा करते हैं , और अपनी प्राप्ति करा देते हैं |
प्रभु की जिस समय विस्मृति हो उस समय एकांत में पूरी श्रद्धा और विनय भाव से उनसे प्रार्थना करें - हे नाथ ! आपके रहते मेरी यह दशा , मैं निश्चय ही पापी हूँ , मेरा अंत:करण मलिन है , मैं अपराधी हूँ , इसीलिए तो आपमें श्रद्धा और प्रेम की कमी है ? आप शरणागत की रक्षा करते हैं | आप तो पतितपावन , दया के सागर हैं | मैं विचार - विवेक के द्वारा आपकी शरण होना चाहता हूँ , किन्तु मेरा मन सुनता नहीं है | इसमें जो श्रद्धा - प्रेम की कमी है , वह तो आपकी कृपा से ही पूर्ण होगी | हे नाथ ! बस यही प्रार्थना है की आपकी दया सर्वत्र मुझको प्रतीत होती रहे | आपकी स्मृति हर समय मुझे होती रहे | हे नाथ ! मैं बल चाहता हूँ , मदद चाहता हूँ जिससे निरंतर चिंतन बना रहे | इस प्रकार एकांत में दिल खोलकर प्रभु से प्रार्थना करें | वास्तव में सच्ची आवाज हो तो करूणासागर तक अवश्य पहुंचेगी | कहते हैं की चींटी के पाँव में बंधे घुँघरू की आवाज भी प्रभु सुन लेते हैं | सबसे श्रेष्ठ मनुष्य शरीर पाकर , सर्वश्रेष्ठ आर्यावर्त देश , सब प्रभु की कृपा से प्राप्त है , फिर भी अगर प्रभु की प्राप्ति इस जन्म में नहीं हुई तो हमारा जन्म व्यर्थ समझा जाएगा | गीता का ज्ञान हमें यहाँ सर्वत्र उपलब्ध है , भगवन्नाम का माहात्म्य महात्मा डंके की चोट बताते हैं |
जब - जब राग , द्वेष , ममता , अहंकार , मान , बडाई , प्रतिष्ठा आकार दबाएँ तो हे नाथ ! हे नाथ ! पुकारें | हे नाथ ! मुझे माया के डाकुओं ने घेर लिया है , मैं अनाथ की तरह मारा जा रहा हूँ | आपके बिना बचानेवाला कोई नहीं है | इस प्रकार हृदय से [ आर्त्त भाव से ] की गई सच्ची प्रार्थना प्रभु अवश्य सुनते हैं | इसलिए अपने द्वारा अपना संसार - समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डालें , क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है [ गीता ६ / ५ ] | विचार करने पर कोई भी समझ सकता है की त्याग से शान्ति मिलती है , केवल त्याग से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है | जिसमें जितना त्याग है उतना ही वह परमात्मा के नजदीक है | कबीरदासजी कहते हैं " कंचन तजना सहज है , सहज त्रिया का नेह | मान , बडाई , ईर्ष्या , दुर्लभ तजना एह ||" महात्मा लोग यह कहते हैं , मान को विष और अपमान को अमृत समझो |
मनुष्य नाम के लिए प्राणों का त्याग कर देता है , कीर्ति के लिए मर मिटता है | कीर्ति से बढकर ' ईर्ष्या ' है | कंचन , कामिनी , मान , बडाई आदि की जड राग है | ईर्ष्या की जड द्वेष है | राग - द्वेष की जड अहंकार है | अहंकार की जड अविवेक , अज्ञान , अविद्या है | इनका नाश प्रभु की शरण से होता है [ ७ / १४ ] | श्रद्धा से ही प्रभु की प्राप्ति संभव है [ १२ / २ ] | अतिशय श्रद्धायुक्त योगी , जो अंतरात्मा से प्रभु को निरंतर भजता है , वह परम श्रेष्ठ योगी माना गया है [ ६ / ४७ ] |
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